संत कबीर
(1)
अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह है जाई।।
संदर्भ :
प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा' (भाग-1) में संकलित 'कबीर वाणी' से लिया गया है। इसके रचयिता कबीरदास जी हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में कबीरदास जी ने हिंदुओं व मुसलमानों के धर्माचरण पर प्रहार करते हुए दोनों धर्मों में व्याप्त बाह्याडंबर व पाखंड की कड़ी आलोचना की है।
व्याख्या :
- कबीरदास जी कहते हैं कि हिंदू-मुसलमान अपने उचित मार्ग से भटक गए हैं। हिंदू अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए स्वयं को बहुत पवित्र समझता है।इसी कारण अपने पानी के बर्तन को भी किसी अन्यवर्ग के व्यक्तियों को छूने नहीं देता, क्योंकि उसे यह डर रहता है कि छूने से उसका बर्तन अपवित्र हो जाएगा।
- एक ओर ये पवित्रता का दिखावा करता है तथा दूसरी ओर वेश्या के पैरों के नीचे सोता है परंतु जब इनकी पवित्रता नष्ट नहीं होती अर्थात् हिंदू वेश्या के यहाँ जाने में भी संकोच नहीं करते हैं। फिर उनके हिंदुत्व का यह ढोंग देखने लायक है।
- इस्लाम को मानने वाले मुसलमानों के आध्यत्मिक शिक्षक तथा उनके भक्त माँसाहार करने के लिए मुर्गी-मुर्गा को मारकर खा जाते हैं।मुसलमान अपनी माँ की बहन की पुत्री से ही विवाह कर लेते हैं एवं अपने ही घर में रिश्तेदारी बना लेते हैं।
- ये बाहर से एक मृत पशु का माँस लाते हैं, उसे धोते हैं और पकाते हैं। इसके बाद सभी एक साथ बैठकर उसे खाते हैं और पूरा परिवार उसकी प्रशंसा करता है।
- कबीरदास जी ने हिंदुओं का हिंदुपन तथा तुर्कों का तुर्कपन अर्थात् मुसलमानी रूप देख लिया है, अब उनके सामने यह समस्या है कि वे कौन-सी राह अपनाएँ, क्योंकि दोनों ही राह स्वयं में दोषपूर्ण हैं।
(2)
बालम, आवो हमारे गेह रे
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवसों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे।।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में कबीरदास जी ईश्वर को प्रियतम व स्वयं को प्रियतमा मानते हुए ईश्वर का आह्वान कहते हुए कहते हैं कि वे आकर उनके हृदय की व्याकुलता को शांत करें, क्योंकि कबीरदास अपने प्रियतम से मिले बिना बेहाल हो चुके हैं।
व्याख्या :